राजनीतिक विचार

मेहनतकश गरीबों को ठंगा दिखाती राजनीति को बदलना होगा ~ संजय भाटी

 

संजय भाटी

क्या आप भी चुनावों के बारे में कुछ सोच रहे हैं? या फिर वोटर लिस्ट में शामिल होने भर से ही गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं? भारतीय लोकतंत्र में वोटर होकर कभी चुनाव मैदान में कूद कर देखने का साहस करके देखिए। तभी आपको अपने महान देश के लोकतंत्र की प्रक्रिया और परिभाषा समझने का मौका मिलेगा। साथ ही यह भी आसानी समझ में आएगा कि इस लोकतंत्रिक व्यवस्था में मेहनतकश लोगों का स्तर क्या है ? उम्मीद है कि संघर्षशील और जुझारू होने की परिभाषा की पोल खुलकर भी आपके सामने आ ही जाएगी।

 

हम सभी अपने जीवन में देश और विभिन्न प्रदेशों में होने वाले लोकसभा, विधानसभा चुनावों के अलावा नगर निकायों और ग्रामपंचायतों के चुनावों में हमेशा देखते हैं कि प्रत्याशी का आर्थिक स्तर चुनावों की हार-जीत से लेकर राजनीति पार्टियों के टिकट तक के लिए अहम होता है।

देश भर में दो-चार अपवादों के अलावा सांसद, विधायक और चैयरमेन जैसे पदों के अलावा नगर निकाय चुनावों तक में अध्यक्ष पद के प्रत्याशियों को तो छोड़िए वार्डों के सदस्य पद के लिए भी सबसे पहली योग्यता उसका धनाढ्य होना ही होती है।

यदि कोई गरीब या औसत आमदनी वाला प्रत्याशी किसी तरह समाज में राजनीतिक दलों द्वारा फैलाई दलदल में कूद भी जाए तो अमूमन उसे हार को ही गले लगाना पड़ता है।

हल ही में उत्तर प्रदेश में नगर निकाय चुनावों के नतीजों से भी हमें ऐसे ही नतीजे देखने को मिले हैं। एक-दो नही निकाय चुनावों में ऐसे बहुत से अध्यक्ष और सभासद पद के प्रत्याशियों की हार ने हमें सोचने को बाध्य कर दिया। चुनावी नतीजों से संघर्ष और जुझारू होने की परिभाषा ही कुछ अजीब सी दिखाई दी। फिर हम चुनावों पर गहनता के लिए पिछले बहुत से चुनावी नतीजों पर नजर डालते हुए कुछ अहम नतीजे पर पहुंचे। जिन में से हम कुछ महत्वपूर्ण कारकों को आपके लिए लेखबद्ध कर रहे हैं।

 

चुनाव जीतने के लिए सबसे पहली योग्यता प्रत्याशी का आर्थिक स्तर महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके अलावा दूसरे सभी फैक्टर दूसरे नंबर पर होते हैं। जो चुनाव क्षेत्रों में जिन राजनीतिक दलों का अपना जनाधार होता है वह कभी भी ऐसे संघर्षशील/जुझारू व्यक्ति को टिकट नही देती जो चुनाव में अच्छा खासा खर्च करने की क्षमता नही रखता हो।

हम तो यहां ये भी कहना चाहते हैं कि वास्तव में तो पैसे वाले लोगों को ही संघर्षशील और जुझारू के साथ-साथ लोकप्रिय का तमगा भी आसानी से हासिल हो जाता है। जिसकी आर्थिक स्थिति वोटर और सपोर्टरों पर खर्च करने की हो वही लोकप्रिय होकर जीत की तरफ बढ़ सकता है। समाज में अब ये बात कोई नही जानना चाहता कि पैसा कैसे कमाया गया है? कहां से आया है? ये सवाल समाज में तो कोई मायने नही रखते।

इस सब पर आपके विचार कुछ भी हो सकते हैं। लेकिन कम से कम हमारे विचार तो उपरोक्त्त के इर्दगिर्द ही हैं। अधिकांश माननीयों और सम्माननीयों की पहली योग्यता उसका धनी होना ही है।

यदि आप इतने से सहमत हो तो आगे चर्चा करें। यहां एक अहम सवाल यह है कि क्या कोई मेहनतकश किसान, मजदूर या दस से पंद्रह हजार कमाने वाला गरीब माननीय और सम्माननीय होकर सांसद या विधायक बन सकता है ? क्या गरीब वोटर कभी चुनाव मैदान में अमीरों के सामने अपनी दावेदारी पेश कर उन्हें पटखनी दे सकता है? यही आपका ज़बाब हां में है तो यह भी सोच लें कि यह कितने प्रतिशत संभव है?

यहां सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि क्या मजदूरी और किसानी करने वाले कितने लोग धनाढ्यों की उस सूची में शामिल हैं जिन्हें मुख्य राजनीतिक दलों के टिकट मिलते हैं? हमारा कहने का मतलब साफ है कि क्या हम गरीब मजदूर और किसान वर्ग के मेहनतकश लोग एक वोटर के रूप में केवल वोटर लिस्ट की शोभा बढ़ाते हुए लोकतंत्र में वोट डालने के अधिकार से कभी आगे बढ़ पाएंगे या हम अपने इसी अधिकार के लिए ही गौरवान्वित होते हुए राजनीतिक दलों द्वारा थोपें हुए धनाढ्यों के वोटर बने रहेंगे?

यहां आपसे एक अहम सवाल यह भी है कि राजनीति में आए धनाढ्य लोगों के पास धन कमाने के लिए कौन से जादुई चिराग होतें हैं? यदि आप इस सवाल का जबाब तलाशने पर थोड़ा सा समय दे दोगे तो आपको बहुत से कर्मठ और ईमानदार प्रत्याशियों की कर्मठता और ईमानदारी की तह तक पहुंच जाओगे। वोट देने से पहले ये सब जानना बहुत जरूरी है। हमारा सीधा सवाल यह है कि उनके कमाई के धंधे क्या होते हैं? इन माननीयों और सम्माननीयों के उस बाग पर ध्यान देने की अत्यधिक जरुरत है जिसमें इन्होंने नोटों के पेड़ लगाए हुए हैं।

जारी…..

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Close