उत्तरप्रदेशनिकाय चुनाव

प्रत्याशी वोटर के पीछे तो पत्रकार हजार, पांच सौ के लिए प्रत्याशियों की तलाश में गलियों की खाक छान रहे हैं

निकाय चुनावों में पत्रकारों और खुद की पार्टियों के पदाधिकारियों व कार्यकताओं को लेकर समय जाया होने से अपने कोर वोटरों तक भी प्रत्याशी नही पहुंच पा रहें हैं। कुछ पार्टियों के प्रत्याशियों से तो निर्दलीय प्रत्याशी बहुत बेहतर हैं उन पर कम से कम पार्टी पदाधिकारियों और उनके मुंह लगे पत्रकारों का बोझ तो नही है ~ संजय भाटी

संजय भाटी/जाकिर

आजकल उत्तर प्रदेश में नगर निकाय चुनाव चल रहे हैं। इन चुनावों में प्रत्याशियों से ज्यादा बेचारे पत्रकार परेशान हो रहे हैं। जहां एक तरफ प्रत्याशी एक-एक वोट के लिए वोटरों के आगे पीछे हाथ जोड़कर खड़े दिखाई दे रहे हैं।

वहीं नगर निकायों के चुनाव क्षेत्रों में कुछ पत्रकारों को भी प्रत्याशियों की तलाश में प्रेस लिखी मोटरसाइकिलों और कारों से हाथ में माइक आईडी व गले में प्रेस के पट्टे डाल कर फुल यूनिफॉर्म में गलियों की खाक छानते हुए देखा जा सकता है।

जहां प्रत्याशी अपने समर्थकों के साथ चुनाव चिन्ह और पार्टियों के नेताओं के नाम लेकर उनके जयकारे लगाते हुए गलियों में ढोल और माइक लेकर अपने लिए वोटरों को लुभाने के लिए घुमते दिखाई दे रहे हैं। इस तरह रोड़ शो और गली मोहल्ले में अपने प्रचार प्रसार के लिए प्रत्याशियों द्वारा जुटाई गई भीड़ का लाभ उठाते हुए कुछ पार्टियों के पदाधिकारी इस तरह के कार्यक्रम में सबसे आगे चलकर अपने फोटो खींचकर/खींचवा कर अपनी पार्टी के उच्च पदाधिकारियों के WhatsApp ग्रुपों में शेयर कर अपने नम्बर बना रहे हैं। ये पदाधिकारी जन समर्थन और अनुभव के नाम पर बिल्कुल नंगें है। न कोई चहेरे की पहचान न कोई जनसरोकार और लोकप्रियता शून्य।

अधिकांश प्रापर्टी डीलिंग के दफ्तरों से मुंह लगे पत्रकारों को बाइट और विज्ञप्तियां जारी करके कुछ खबरें छपवा कर पार्टियों की टोपियां पहनने और पहनाने तक सीमित रहने वाले ऐसे तथाकथित नेता/पदाधिकारियों का सच इनके जाल में फंसाकर निकाय चुनावों में प्रत्याशी बने लोगों के सामने तो चुनाव कम्पेन में ही आ रहा है। लेकिन वोटों की काउंटिंग के दिन इनकी पार्टी के आला नेताओं के सामने भी आ जाएगा। 

वहीं आज कल जो पत्रकार रोजमर्रा की पत्रकारिता करते हुए एकाध अद्धे-पव्वे और घरेलू खर्च  निकालने के लिए गली-मोहल्ले के छोटे मोटे अवैध धंधों से जुड़े लोगों के साथ मिल बैठकर उन्हें संरक्षण देते रहते हैं। वे पत्रकार अब प्रत्याशियों के आगे पीछे हजार/पांच सौ रुपए के लिए घुमते दिखाई दे रहे हैं।

आप समझ सकते हैं कि चुनाव के दौरान सबसे ज्यादा समस्याओं का सामना पत्रकारों को करना पड़ रहा है। एक तरफ तो मीडिया संस्थानों में बैठे सिनियर बेचारे पत्रकारों से प्रत्याशियों के विज्ञापनों की मांग कर रहे हैं। जबकि ऐसे में पत्रकारों के निजी खर्च भी नही निकल रहे हैं।

दूसरी ओर निकाय चुनावों में अनेकों नौसिखिया नेता जिन्होंने धनतंत्र और लोकतंत्र के समन्वय को समझें बगैर लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भरोसा कर चुनाव में तल ठोक दी, जो अब चुनाव मैदान में उतारने से पहले पूरी तरह साथ खड़े अपने साथियों/समर्थकों व जिन पार्टी के चिन्ह पर चुनाव मैदान में उतारें हैं। प्रत्याशी उनके नकारा और ढपोरशंख पदाधिकारियों और कार्यकताओं तक की डिमांड तक पूरी नही कर पा रहे हैं।

बहुत से प्रत्याशियों को खुद की पार्टियों के नकारा और बेकारें पदाधिकारियों के लिए फूल मालाओं से लेकर पोस्टर, बैनरों व होल्डिंग पर नाम व फोटो छपवाने से वोटर तक पहुंचने की फुर्सत नही मिलती। इस तरह के पार्टी प्रभारियों के स्वागत और मंच का इंतजाम करने के चक्कर में प्रत्याशी अपने खुद के वजूद और पहचान के मित्र और रिश्तेदारों व मतदाताओं तक अपने चुनाव में प्रत्याशी होने की जानकारी तक नही पहुंच पा रहे हैं।

उत्तर प्रदेश निकाय चुनावों में बहुत सी पार्टियों के पास चुनाव क्षेत्रों में पार्टी के नाम के दर्जन भर वोट और कार्यकर्ता नही हैं। लेकिन पदाधिकारियों ने प्रत्याशियों के नाक में दम दे रहे हैं। दूसरी ओर ये पदाधिकारी अपने कुछ टूकडखोर और मुंह लगे पत्रकारों को भी अपने साथ प्रत्याशियों से खर्चा-पानी दिलाने को कहकर लाते हैं। प्रत्याशियों के चुनाव कार्यालयों पर गले में पटका और सिर पर पार्टियों की टोपियां पहन कर अपने लंबे चौड़े संदेश पत्रकारों से रिकॉर्ड करवा कर प्रत्याशियों उसे प्रसारित करवाने के नाम पर खर्चा देने का दबाव बनाते हैं।

बेचारे प्रत्याशी पत्रकारों और पार्टी पदाधिकारियों के गठबंधन के मैंनेजमेंट में समय और पैसे के खर्च के चक्कर में इतने डीप्रेशन में आ जाते हैं कि वे अपने कोर वोटरों तक भी नही पहुंच पा रहें हैं। हमारा कहने का मतलब यह है कि प्रत्याशी अपने पुराने मित्रों, रिश्तेदारों व सगे संबंधियों तक भी नही पहुंच रहे हैं।

जैसे जैसे वोटिंग का दिन नजदीक आ रहा है, वैसे वैसे ही प्रत्याशियों का चुनावी ज्ञान वर्धन होता जा रहा है। प्रत्याशी अब भलीभांति समझ चुके हैं कि जो पार्टियों की टोपियां उन्होंने खुद बड़े चाव से पहनी थी दरअसल वह उन्हें पार्टियों के पदाधिकारियों द्वारा केवल उनकी जेब को ढीला करने को सोची समझी रणनीति के तहत पहना दी गई है। दरअसल पार्टियों की टोपियां पहनने वाले प्रत्याशी अब समझ रहे हैं।

पार्टियों के पदाधिकारियों ने प्रत्याशियों को जो टोपियां पहनाई हैं वे अपनी जुगलबंदी के पत्रकारों द्वारा पूर्व में अपनी जेब के पांच सौ खर्च करके छपवाई गई खबरों को दिखा कर झांसे में लेकर ही पहनाई हैं। अनेकों पार्टियों के पदाधिकारी और उनके मुंह लगे पत्रकार, पार्टियों में नए शामिल हुए नेताओं की जेब पर गिद्ध दृष्टि डालें रहते हैं।

कई प्रत्याशियों के पास उनकी बाइट के लिए पार्टी पदाधिकारियों व उनकी गाडियों में बैठकर आने वाले उनके चहेते पत्रकारों को खुब खरी खोटी सुनाई गई हैं। कई जगह नौबत गाली गलौच तक पहुंची तो अपने साथ होने वाले अगले कार्यक्रमों को भांपते हुए पत्रकारों द्वारा दूसरी जगह जाने की बहाने बाजी करके समझदारी से काम लेकर खिसक जाने के किस्से भी सुनने को मिल रहे हैं।

उपरोक्त विश्लेषणात्मक लेख में जो तथ्य व बातें कही गई है, वह सभी पूर्णतः प्रमाणिक है यदि किसी को कहीं तनिक भी संदेह लगता है तो चुनाव के नतीजे आने तक इंतजार करें। पाठकों के सामने उन सभी पार्टियों के नाम स्वत ही सामने आ जाएंगे जिनके पदाधिकारियों को लेकर लेखकों द्वारा यह लेख लिखा गया है। यह लेख केवल लेखक के विचार मात्र नही हैं बल्कि वास्तविक स्थिति को देखते हुए ही ये विचार और तथ्य रखें गए हैं।

रही बात हजार/पांच सौ रुपए की तलाश में भटकने वाले पत्रकारों की तो यह तथ्य तो इतना आम है कि अब इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नही है। चुनावी पैकेज लेकर कवरेज करने वाले पत्रकारों की खबरों के आंखों के सामने आते ही साधारण जन भी खुदबखुद समझ जाते हैं कि खबर हजार/पांच सौ वाली है। आजकल तो आम जन यह भी समझ रहे हैं कि पत्रकारों की खबरें अब बगैर हजार/पांच सौ के प्रकाशित ही नही होती ~ संजय भाटी

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