राष्ट्रीयविचारक

लोकतंत्र में मात्र एक वोट देने भर से जिम्मेदारी खत्म नही होती

 

संजय भाटी संपादक सुप्रीम न्यूज

सत्ता के विरोध और आलोचना में बोलने का मतलब शायद बहुत कम लोग ही समझते हों। जो लोग सत्ता का विरोध या आलोचना करने का मतलब नहीं समझते हैं हम उन्हें बखूबी बता देना चाहते हैं कि शासक वर्ग का विरोध और आलोचना करने का मतलब सिर्फ दण्ड ही होता है। दण्ड का मतलब जेल या मौत भी हो सकता है। यह मतलब हमेशा प्रत्येक तरह के शासन में सिर्फ दण्ड, जेल या मौत ही होता है। चाहे मिलिट्री शासन हो, चाहे तानाशाही हो, चाहे लोकतंत्र ही क्यों न हो। हमारा कहना यह है कि सत्ताधारियों के विरोध या आलोचना का सीधा मतलब कष्ट उठाने से है। ये सुस्थापित नियम सदियों से तानाशाही से लेकर लोकतंत्र तक चला आ रहा है।

अब यहां एक बड़ा सवाल ये है कि हम लोकतंत्र में भी सत्ता के विरोध या आलोचना का सीधा मतलब दण्ड क्यों बता रहे है? जबकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो विरोध और आलोचना तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुधारने और सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए लोकतंत्र के जरूरी हिस्सें बताए जाते हैं।

हमारे कह की वजह भी बिल्कुल सही है। क्योंकि हमारे देश में वर्तमान में भी सत्ता के विरोध और आलोचना के मामले में दण्ड, जेल और मौत का नियम बहुत प्रासंगिक है। भले ही हमारे देश में लोकतंत्रिक सिस्टम चल रहा है लेकिन सत्ता के इर्द-गिर्द बैठ लोगों व सरकारी विभागों में बैठे लोगों की मनमानी को संविधान और संविधान में वर्णित संसाधनों से एक आम आदमी की तो बात ही छोड़िए एक औसत पढ़े लिखे और मध्यम आर्थिक स्तर के व्यक्ति के द्वारा भी नियंत्रित करना लगभग नामुमकिन ही है।

इसका सबसे बड़ा कारण हमारे दिमाग में भरा हुआ अनुपयोगी ज्ञान है। हम भारतीय वासियों में दिमागी कमी या ज्ञान की कमी बताने की हिम्मत और हैसियत तो नही रखते। बस हम यह कह कर काम चलाना चाहते हैं कि हमारे दिमाग के अधिकांश हिस्सों में ज्ञान के भंडार के रूप में केवल धार्मिकता और पौराणिकता भरे पड़े हैं। जो जन्म लेते ही खुद हमारे परिजनों द्वारा इस हद तक भर दिए जाते हैं कि स्कूल कॉलेजों के जरुरी पाठ्यक्रम को सीखने-समझने तक की जगह और क्षमता हमारे दिमाग के किसी भी हिस्से में नही छोड़ी जाती/बचती।

अब ऐसी हालत में लोकतंत्रिक सिस्टम से संबंधित व्यवस्था को समझने के लिए दिमाग के एक बड़े हिस्से की जरूरत के साथ-साथ समय और लग्न की भी जरूरत होती है। अब यहां दिमाग के कुछ खाली पड़े हिस्से के साथ एक तो समय की जरूरत हमारे द्वारा इसलिए बताई गई है क्योंकि संविधान और कानूनों को पढ़कर समझते हुए उन्हें अपने दिमाग में जगह देनी होगी। दूसरे इसके लिए लगन, तल्लीनता, भाव, टारगेट, उद्देश्य, ध्यानमग्नता, विचार मग्नता की जरूरत होगी। यह भी हमारे द्वारा बता दिया गया है।

अब हमारा पाठकों और देश के नागरिकों से सवाल है कि क्या आप अपने दिमाग में अपने देश के संविधान और कानूनों के लिए जगह बना सकते हैं? क्या आप अपने देश के संविधान और कानूनों को पढ़कर दिमाग में बैठाने के लिए समय दे सकते हैं? क्या आप में इसके लिए जिज्ञासा है? क्या आप इसके लिए लगन, तल्लीनता, भाव, टारगेट, उद्देश्य, ध्यानमग्नता, विचार मग्नता आदि से तैयार हैं?

यहां हम सभी भारत वासियों और अपने पाठकों को यह बता देना चाहते हैं कि देश की आजादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वाले क्रांतिकारियों की जो सोच और सपने थे। उनमें से अधिकांश तो आजादी मिलने और देश में लोकतंत्र की स्थापना करते वक्त ही धराशाई हो गए थे। बाकी जो कुछ बचे थे वे एक वोट देने भर से लोकतंत्रिक सिस्टम के चलने के हमारे सपने के साथ हर रोज धराशाई होते हम सब भी देखे हैं।

हम यहां साफ-साफ कहना चाहते हैं कि देश की आजादी और लोकतंत्र की स्थापना का लाभ देश की आम जनता तक एक वोट देने भर से नही मिल जाएंगे। मतलब साफ है कि बस एक वोट देने मात्र से हमारी जिम्मेदारी खत्म नही हो जाती।

 

अभी तो हमारा लोकतंत्र कुछ सत्ताधारियों और पूंजिपतियों तक सीमित है।

 

 

जारी …..

संजय भाटी संपादक सुप्रीम

 

 

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