विचारकसंजय भाटी

प्रिय पुलिसिया पत्रकार बंधुओं आप सभी की पत्रकारिता को “CP GBN PRINT MEDIA” ग्रुप तक सीमित होने की लाख-लाख बधाई

गौतमबुद्धनगर में पत्रकारों के पास पत्रकारिता के नाम पर ले देकर "CP GBN PRINT MEDIA" और "सूचना विभाग" के अलावा कोई जनसरोकार नही हैं। ये बात पत्रकारों द्वारा संचालित WhatsApp ग्रुपों और समाचार पत्रों में प्रकाशित व प्रसारित होने वाली खबरें बता रहीं हैं। पत्रकार सारे दिन सरकारी मशीनरी द्वारा जारी खबरों को वायरल करके अपनी पत्रकारिता को साबित करते हैं। इसके अलावा पत्रकारों के WhatsApp ग्रुपों में न के बराबर खबरें होती हैं। इसके अलावा कुछ विज्ञापन दाता मित्रों को पत्रकार अपनी खबरों का हिस्सा बना कर पत्रकारिता की इतिश्री कर देते हैं। जिसके चलते हालात इतने नाजुक हो गए हैं कि आमजन को पत्रकारों पर भरोसा भी नही है। वे अपनी परेशानी पत्रकारों को बताने को भी तैयार नही होते। क्योंकि आम जन जान गए हैं कि पत्रकार हर कदम पर धंधा तलाशते हैं ~ संजय भाटी

प्रिय पत्रकार बंधुओं नमस्कार, 

गौतमबुद्धनगर में पत्रकारों के पास पत्रकारिता के नाम पर ले देकर “CP GBN PRINT MEDIA” और “सूचना विभाग” के अलावा कोई जनसरोकार नही हैं। ये बात पत्रकारों द्वारा संचालित WhatsApp ग्रुपों और समाचार पत्रों में प्रकाशित व प्रसारित होने वाली खबरें बता रहीं हैं। पत्रकार सारे दिन सरकारी मशीनरी द्वारा जारी खबरों को वायरल करके अपनी पत्रकारिता को साबित करते हैं। इसके अलावा पत्रकारों के WhatsApp ग्रुपों में न के बराबर खबरें होती हैं। इसके अलावा यदि और कोई खबर होती है तो वह कुछ विज्ञापन दाता मित्रों की तारीफों के पुलिंदे को पत्रकार अपनी कलम की कलाकारी दिखाते हुए खबरों का हिस्सा बना कर पत्रकारिता की इतिश्री कर देते हैं। जिसके चलते हालात इतने नाजुक हो गए हैं कि आमजन को पत्रकारों पर भरोसा भी नही है। वे अपनी परेशानियों को पत्रकारों को बताने को भी तैयार नही होते। क्योंकि आम जन जान गए हैं कि पत्रकार हर कदम पर धंधा तलाशते हैं ~ संजय भाटी

   

बोलो 🙏”सियावर राम चंद्र की जय”🙏 एक बार फिर से बोलो 🙏”जय सियाराम”🙏

पुलिस में मौजूद मित्र और पुलिस द्वारा संचालित ग्रुप ही हमारी खबरों के मुख्य स्रोत 

 

आप सभी पत्रकार बंधुओं को “CP GBN PRINT MEDIA” के WhatsApp ग्रुप से प्रसारित खबरों के प्रकाशन तक सीमित रहने के लिए लाख-लाख बधाई। आप सभी बंधुओं को बधाई देने की जिज्ञासा बहुत दिनों से हो रही थी। समय आभाव के चलते हुई देरी के लिए क्षमा चाहते हैं। 

 

वैसे देरी का कारण यह भी है कि हम जिले में पत्रकारिता की कमान संभालने वाले सैकड़ों संपादकों और कई सौ पत्रकारों के मीडिया संस्थानों व उनके स्वयं के पुलिस-प्रशासन व चंद राजनीतिक दलों के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पण का गहराई से अध्ययन कर रहे थे। दूसरे पत्रकारों के इस समर्पण के कारण पर भी अध्ययन करने में समय लगा है। सभी पत्रकार बंधुओ को उनके इस महान कार्य के लिए आपके कार्य के अनुरूप एक नाम देने की चुनौती भी हमारे सामने है।

आप सभी बंधुओं को आपके इस महान कार्य के लिए बधाई तो दे ही दी गई है। लेकिन अब आप सभी से आग्रह है कि इस महानतम कार्य को एक यूनिक नाम देने के लिए कुछ बंधुओं से हुई चर्चा को आपके सामने इस उम्मीद से रख रहे हैं कि आपके मन मस्तिष्क में कोई बेहतर विकल्प हो तो आप भी अपने विचारों को सांझा करें । वैसे तो बंधुओं हम सब ने पत्रकारिता पर पूरी तरह से पुलिसिया “इस्त्री” फेर दी है।

समय-समय पर कुछ बंधुओं से “बंधुआ” शब्द को लेकर चर्चा की गई तो उन्होंने “बंधुआ” शब्द का घोर विरोध किया और “बंधुआ” शब्द के स्थान पर पत्रकारों के लिए “चमचा” शब्द के प्रयोग को उचित ठहराते हुए कहा कि “बंधुआ” तब कह सकते हैं जब कोई कार्य जोर जबरदस्ती से कराया जाता है। यहां तो सब कुछ स्वेच्छा से किया जा रहा है किसी पर पुलिस विभाग की कोई जोर जबरदस्ती नही है इसलिए यह चमचागिरी की श्रेणी में आता है। इसलिए इसके लिए “चमचा” शब्द का प्रयोग किया जाएं।

अब नया सवाल सामने आ गया। “बंधुआ” के स्थान पर “चमचा” तो मान लेते हैं। लेकिन “बंधुआ” होना तो मजबूरी को दर्शाता है। हम अपनी करतूतों का ठीकरा सरकार व सरकारी मशीनरी को तानाशाह बताकर फोड़ देते पर साथी गण भी पूरी ऐसे-तेसी कराने में जुटे हैं। बात को समझ ही नही रहे हैं सारा दोष पत्रकारों का ही बता रहे हैं।

 

सोच लीजिए “चमचा” होना तो “स्वेच्छापूर्ण” रूप से किसी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष लाभ की ओर इशारा करता है। जिसमें सारा दोष पत्रकारों पर ही आ रहा है। अब हम ने नए पैदा हुए सवाल पर बंधुओं से विचार करने को कहा। आखिर ऐसा कौन सा लाभ है जो स्वेच्छा से चमचागिरी की जा रही है। 

 

कईयों बंधुओं ने एक सुर में कहा कि “दलाली” के कारण चमचागिरी करनी पड़ती है। कुछ बंधुओं का ये भी कहना था कि “बंधुआ” कहो या भी “चमचा” कहो। आजकल के पत्रकारों पर इसका कोई असर नही होता। क्योंकि अब बेहयाई, बेशर्मी, ढिठाई, पत्रकारिता के पेशे का महत्व पूर्ण गुण है। जिसे किसी भी पत्रकार को आत्मसात करना ही पड़ता। क्योंकि इन गुणों से युक्त पत्रकार ही “दलाली” करके पैसा कमा सकते हैं।

नया बखेड़ा खड़ा हो गया। अब ये “दलाली” क्या है? बंधुओं अब इस पर भी विचार करना पड़ेगा।‌‌‌‌‌ पुलिस विभाग से किस बात की “दलाली” होती है? अब हमारा अहम सवाल यह है कि जब मुख्य कार्य “दलाली” करना है तो गले में आईडी कार्ड और हाथ में माइक आईडी प्रेस के क्यों?

 

दलाली करने के लिए “दलाल” होने का आईडी कार्ड क्यों नही हो सकता? जब धंधा दलाली का करना है तो पत्रकारिता जैसे पवित्र पेशे को कलंकित नही करना चाहिए। पत्रकारों के अलावा दूसरे बहुत से लोग भी दलाली करते हैं। राजनीति और समाज सेवा के नाम पर भी दलाली अब एक आम बात है। एक अहम सवाल यह है कि दलाली के लिए पत्रकारिता की क्या जरूरत है? सवाल तो सैकड़ों हैं। सभी सवालों का एक बड़ा और वास्तविक ज़बाब यह है कि हम पैसे के पीछे अंधे हो गए हैं। पैसे के अलावा हम दूसरा कुछ भी नही देखना चाहते।

 

इसलिए पत्रकार ऐसी खबरें पर ध्यान नही देते जहां खबरों को एकत्रित करने में केवल समय और पैसे के खर्च के साथ-साथ दूसरे तरह की परेशानियां हों। दूसरे और प्रदेश भर में पुलिस के द्वारा जारी खबरों के प्रकाशन से चौतरफ़ा लाभ होता है। बिना कुछ किए पत्रकारिता और दलाली दोनों काम आसानी से चलते रहते हैं। इसमें पुलिस और पत्रकार दोनों खुश रहते हैं।

 

यही कारण है कि अब आम जनता केवल दलाली के लिए ही पत्रकारों से संपर्क करती है। पत्रकारों को पुलिस का अहम हिस्सा माना जाता है। समाचार पत्रों और अन्य मीडिया संस्थानों में पुलिस कार्रवाई के बाद पुलिस के द्वारा जारी तथ्य ही खबर के रूप में प्रकाशित और प्रसारित होते हैं। इसलिए अब पत्रकारों को पुलिसिया पत्रकार और वर्तमान में हो रही पत्रकारिता को पुलिसिया पत्रकारिता कह कर गौरवान्वित हो सकते हैं। यूं कहें कि अब मीडिया संस्थान पुलिसिया हो गए हैं तो अतिशयोक्ति नही होगी। 

वैसे भी पुलिसिया पत्रकारिता वर्तमान में सम्मान और कमाई दोनों एक कोम्बो पैकेज है। वो भी बिना किसी झंझट। पुलिसिया पत्रकारिता का मतलब जनसरोकार की पत्रकारिता के अंत के साथ-साथ पत्रकारों की जान के झमेलों का अंत। इसलिए अंत में नए दौर की पत्रकारिता के लिए बधाई।

 

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