गौतमबुद्धनगर

गौ-माता और पशुपालकों के लिए धरातल पर कुछ भी नही, ध्यान केवल मीडिया मैनेजमेंट और भाषण पर

 

गाय की मौत के बाद उसके बछड़े को दूध पिलाते हुए

 

मैं एक हिंदू परिवार से ताल्लुक रखता हूं। बचपन से लेकर आज 51 साल की उम्र तक मेरे कानों में एक ही आवाज डाली गई कि गाय हमारी माता होती है। हमें गाय का सम्मान करना चाहिए। गाय की पूजा करनी चाहिए। लेकिन आज तक यह समझ में नहीं आया कि आखिर गौ माता की पूजा हमें किस प्रकार करनी चाहिए। आमतौर से पूजा अर्चना के जो तौर तरीके मैंने अपने 51‌ साल के जीवन में देखे हैं। उनमें हवन, पूजा अर्चना, ज्योत-बत्ती और अगरबत्ती सामग्री या फिर कुछ मंदिरों में जाकर वहां लगी हुई मूर्तियों पर दूध या जल से उनका अभिषेक करके, फूल, फल चढ़ा कर उनके आगे हाथ जोड़कर नतमस्तक होने को ही कहते व लोगों को करते देखा है। मैं जानना चाहता हूं कि क्या गौ माता की पूजा भी इसी तरह से की जाती है? या इसका तरीका कुछ और है? आओ इस पर चर्चा करते हैं।

शायद मेरे इस सवाल का जवाब मुझसे ज्यादा बहुत सारे भारतीयों को नहीं मालूम होगा क्योंकि मैं हिंदू परिवार में पैदा होने के साथ-साथ एक किसान परिवार से भी ताल्लुक रखता हूं। मेरे बचपन के समय में हमारे परिवार में गाय, भैंस, बैल व उनके बच्चे बहुत चाव और प्यार से पाले जाते थे। गाय, भैंस दूध पीने व उनके गोबर का उपयोग इंधन व खेती में खाद के लिए किया जाता था। बैलों का उपयोग खेती-बाड़ी के काम जैसे गाड़ी हल और खेत में दूसरे काम मैडा देने के लिए किया जाता था। मैंने अपनी उम्र 30 के लगभग वर्ष होने तक परंपरागत रूप से परिजनों के साथ खेती किसानी और पशुपालन के परंपरागत गुर सीखे थे। उस दौर में मैंने खुद की जिम्मेदारी के तहत भी खेती किसानी और पशुपालन का कार्य बखूबी किया लेकिन उसके तौर तरीके सब परिवारिक अनुभव व पारंपरिक ही थे।

यहां यह भी बताना जरूरी है कि हमारे परिवार में  खेती किसानी के साथ-साथ शिक्षा पर भी दादा, परदादा के टाइम से ही बहुत महत्व दिया गया था।दादा जी हरियाणा के डिग्री कॉलेज में प्रिंसिपल थे। मेरे पिता ने विभिन्न स्तर पर अध्यापन कार्य किया। वह सरकारी नौकरी में भी थे। मेरे पिता ने सरकारी नौकरी छोड़कर वकालत के व्यवसाय को अपना लिया था। परिवार के अन्य सदस्य चाचा, भाई, बहन वकालत के व्यवसाय में हैं। कुछ छोटे भाई-बहन आधुनिक शिक्षा लेकर मल्टीनैशनल कम्पनियों में अच्छे-खासे पैकेज कर कार्यरत हैं। मतलब साफ है कि डिग्रियां घर की दीवारों पर टंगी होने से लेकर क्षेत्र में परिवार की शान में चार चांद लगाने के लिए प्रयाप्त है। मैं भी भारतीय कानून, संविधान, लोकतंत्रात्मक सिस्टम से लेकर पत्रकारिता जैसे क्षेत्रों का खोजी छात्र हूं। 51 साल की उम्र में भी सीखने और पढ़ने की आदत मुझ में खानदानी रूप से आज भी मौजूद है।‌

मुझे इस बात का दुःख है कि सरकारी कुचक्र के तहत किसानी और पशुपालन के मामले में चाह कर भी कभी भी अपने जिले, क्षेत्रों व आसपास कहीं भी आधुनिक और वैज्ञानिक तौर तरीके सीखने का मौका नहीं मिला। इसका बड़ा कारण यह था कि हमारे जिले में इसकी आज तक भी कोई व्यवस्था नहीं है। हमारे जिले गौतम बुध नगर में ना तो खेती किसानी और पशुपालन से संबंधित प्राइवेट संस्थाओं और ना ही सरकार की कृषि व पशुपालन योजनाओं व सरकारी व्यवस्था के तहत इस तरह का कोई ज्ञान देने पर ध्यान नही दिया जा रहा है। हां यह जरूर हो सकता है कि मीडिया के विज्ञापनों और विज्ञप्तियो में कृषि अधिकारी व पशुपालन अधिकारी की विशेष भूमिका छपती रहती हैं।

इस तथ्य की जानकारी मुझे इसलिए है क्योंकि धीरे-धीरे मेरा लगभग 25 वर्ष का पत्रकारिता का अनुभव भी हो रहा है। मैंने अपने पत्रकारिता के अनुभव में भी अपने जिले में कोई भी इस तरह की सरकारी योजना धरातल पर नहीं देखी। विज्ञप्ति मेरे पास भी बहुत बार आई और ना चाह कर भी मुझे इसलिए छापनी पड़ी कि यह विज्ञप्ति अक्सर जिले के सूचना विभाग यानी डीएम कार्यालय से आती हैं।

मेरे जन्म के लगभग चार साल बाद 17 अप्रैल 1976 को उस समय के हमारे जिले गाजियाबाद में नोएडा प्राधिकरण अस्तित्व में आया था। बाद में एक और प्राधिकरण ग्रेटर नोएडा की स्थापना सरकार द्वारा 28 अप्रैल 1991 को कर दी गई थी। इस के बाद गौतमबुद्धनगर जिले की स्थापना 9 जून 1997 को बुलन्दशहर एवं गाजियाबाद जिलों के कुछ ग्रामीण व अर्द्धशहरी क्षेत्रों को काटकर की गयी थी। गौतम बुद्ध नगर में दो प्राधिकरणों के अलावा यूपीआईडीसी आदि भी मौजूद थे। लेकिन बीस साल पहले सरकार द्वारा तीसरे प्राधिकरण की स्थापना गौतमबुद्धनगर जिले में यमुना प्राधिकरण के नाम से 24 अप्रैल 2001 को कर दी।

अब मेरे कहने को कुछ बचा नही है। लेकिन मैं इतना तो समझता ही हूं कि मेरे जैसे हिन्दू परिवारों में जन्मे परम्परागत तरीके से किसानी व पशुपालन करने वाले गौ माता के पुत्रों की समझ में ये बात बिल्कुल भी नही आएगी कि हमारे प्रदेश व केंद्र की सरकारें हमारी खेती किसानी की जमीनों में पूंजीपतियों और उद्योगपतियों के साथ मिलकर प्रापर्टी डीलिंग करने में लंबे समय से लगी हुई हैं।

हमारी सरकारों और नेताओं का ध्यान हमारे जिले में ही नही बल्कि पूरे देश में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रों व दूसरे शहरों में औद्योगिक विकास के नाम पर में प्रापर्टी डीलिंग करने में है। खेती किसानी, पशुपालन आदि में आधुनिक और वैज्ञानिक विधियों की जानकारी देने पर सरकार गंभीर नही है। इसलिए आज भी सम्पूर्ण भारत में अधिकतर किसान परम्परागत तरीके से पशुपालन और खेती करने को मजबूर हैं। दूसरी ओर सरकारी कुचक्र के चलते हमारे जैसे करोड़ों किसान व पशुपालकों का मुख्य व्यवसाय अब कृषि और पशुपालन नही रहे। क्योंकि इन कामों में छोटे स्तर पर अब कोई रोजगार जैसी बात नही रही ये बात अलग है कि हमारी तरह बहुत से किसान परिवार अपने घरों में गाय, भैंस रखते हैं। इस का दूसरा बड़ा कारण यह है सरकारों द्वारा हमें गांव से शहर और स्मार्ट सिटी में बदल दिया गया है।

अब मैं फिर से गौ-माता पर ही आता हूं। आज  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ग्रेटर नोएडा में जहां विश्व डेयरी सम्मेलन का उद्घाटन करने आए थे। उसी ग्रेटर नोएडा में उद्घाटन स्थल से मात्र पांच किलोमीटर दूर संसाधनों की कमी और पशुपालन से संबंधित किसान के आधुनिक व वैज्ञानिक ज्ञान की कमी के चलते एक गौ माता की मौत हो गई। क्योंकि किसान को केवल वर्षों पहले अपने बुजुर्ग परिजनों से मिला आधा-अधूरा ज्ञान था। जो केवल गौ माता के सम्मान और आदर के साथ-साथ उसके साथ भावनात्मक लगाव तक सीमित था। लेकिन गौ-माता की जान बचाने के लिए पशुपालन के आधुनिक टेक्नोलॉजी और वैज्ञानिक विधियों की जानकारी की आवश्यकता थी। जो हिन्दुतव के पूजा, अर्चना, ज्योत-बत्ती, अगरबत्ती, सामग्री आदि के ढकोसले में कहीं भी नही था।

 

अब आप स्वयं देखेंगे कि असली भारतीय किसान जिस बछड़े की मां उसे जन्म देकर अपना दूध पिलाने से पहले मर गई। किसान उसे दूध पिलाने में लगे हुए हैं। क्या किसान ने गौ-माता की जान बचाने के प्रयास में कोई कोर कसर बाकी छोड़ी होगी? बिल्कुल भी नही। दवा से लेकर डॉक्टर पर खर्च करने में कोई कोर कसर नही छोड़ी गई। फिर गौ-माता की जान क्यों नही बची?

यहां यह भी सवाल है कि सरकार की तरफ से पशुओं के लिए किसी तरह की जांच और ईलाज की सुविधा उपलब्ध हैं?  पशुओं के सरकारी अस्पताल कितने हैं? उनमें डॉक्टरों की संख्या और दवाओं की उपलब्धता कितनी है? यदि इस पर विस्तार से चर्चा की गई तो जो कुछ सुविधाएं पशुपालकों को नगद खर्चा करके मिल रही हैैं। वे भी बहस बाजी में समाप्त हो जाएंगी।

आज दिनांक 13-09-2022 को ग्रेटर नोएडा के देवला गांव में फिर एक गौ माता चल बसी। इनका तो बच्चा भी जन्म के साथ ही चला गया। इस मामले में भी ज्यों कि त्यों वही बीमारी या में कहें कि वही समस्या किसान के सामने रही। यहां भी सब कुछ अपने बुजुर्गों से मिले पशुपालन के ज्ञान और राम नाम पर निर्भर रहा। जो गौ माता की जिंदगी नही बचा सका। सरकारी सुविधाएं और ज्ञान किसानों तक नही पहुंच रहे हैं किसान बेबस और लाचार है।  ये मामले पशुपालन करने वाले लोगों के घरों में पाली जा रही गौ माता के हैं। दवाईयों और सुविधाओं के अभाव में मर रहीं हैं। सड़कों पर भूखी-प्यासी जीवन जीने वाले गौ वंश का क्या हाल है वो किसी से छिपा हुआ नही है।

https://twitter.com/SupremeNewsG/status/1569535951751512064?t=EHX5nWAaJjIwIlanFoRPuQ&s=19

गौ-पालन के लिए आज के दौर में केवल इतना काफी नही है कि गाय को माता मानने भर से काम चल सके बल्कि उसके शरीर और स्वास्थ्य के बारे में जानकारी और उसकी नस्ल के हिसाब से उसके शरीर में होने वाले खनिजों की कमियों व पशुओं में होने वाली सभी बीमारियों के बारे में अच्छी-खासी जानकारी के साथ-साथ आधुनिक दवाईयों और विधियों के ज्ञान की जरूरी है। अब हमें अच्छी तरह से समझना होगा कि राम नाम पर केवल सरकारें बनाई जा सकती है। इसके अलावा राम नाम पर एक गौ माता की जान भी नही बच सकती।

हमारे जिले में सरकार की ओर से ना कोई ट्रेनिंग, ना कोई पशु पालन पर शिक्षा व्यवस्था, पशु व पशु पालकों का रिकॉर्ड तक जिले में नही है। ना कोई जानकारी। जो भी प्रधानमंत्री बताते हैं, धरातल पर कुछ भी नही मिलता। ले दे कर सिर्फ कुछ सीखने के लिए मिलता है तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के भाषण से ही तो मिलता है। वो भी मीडिया मैनेजमेंट की मेहरबानी के चलते पढ़ने व सुनने को मिलता है। वरना अब से पहले भी देश में चौदह प्रधानमंत्री रहे हैं। जो अपने भाषण भी जनता तक नही पहुंचा पाए।
आखिर हम सीखते भी कहां से?

हम सरकार से उम्मीद करते हैं कि सरकार गौ पालकों व पशुपालकों को प्रशिक्षण और अन्य सुविधाएं दे। जिससे वे पशुपालन के क्षेत्र में लगे छोटे से छोटे पशुपालक भी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से परिचित हो सकें। दूसरे पशुओं के सरकारी अस्पताल और डॉक्टरों की संख्या व पशुओं के सरकारी अस्पताल में दवाईयों और अन्य सुविधाओं को बढ़ाने पर ध्यान दिया जाए। एक पशु की बीमारी और मौत पशु पालकों पर दोहरा आघात पहुंचाता है। एक तो अपने पशु से भावनात्मक लगाव होता है। दूसरे किसी भी पशु की मौत होने पर पशु पालकों को आर्थिक नुक्सान भी उठाना पड़ता है। कभी कभी तो पशु पालकों द्वारा साहुकारों से कर्ज लेकर पशुपालन किया जाता है। हमारा उद्देश्य सुधारों की उम्मीद है।

संजय भाटी

 

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