मीडिया और पुलिस

क्लबिया मुखबिरों और दलालों के नेटवर्क से जन सरोकार ध्वस्त

इस लेख को नोएडा मीडिया क्लब के फाउंडर मेंबर और अध्यक्ष पंकज पाराशर के परिजनों और फाउंडर मेंबर और उपाध्यक्ष रिंकू यादव और उसके भाई अशोक यादव से जोड़ कर नही देखा जाए बल्कि पूरे क्लबिया गैंग को इसी आईने से देख लो। मेहरबानी करके सबके कपड़े मत उतरवाईयें। कुछ गरीब बेरोजगारी के दौर में अपने पेट पाल रहे हैं। वे किनारे हों जाएं तो जेल जाने वाले लोगों की संख्या कम रहेगी। कुछ छोटे-छोटे उगाही वीर क्लब के चक्कर में हमारे टारगेट बनते हैं। पेट भरने के लिए पत्रकारिता कर रहे लोग हमारे रास्ते में न आए तो लग्जरी फ्लैटों और गाड़ियों वालों का हिसाब किताब जल्द कर देंगे।

मधु चमारी की खास रिपोर्ट  मुखबिरों और दलालों का नेटवर्क

क्लबिया गैंग का सरदार और ट्राईसिटी टुडे का मालिक ” सुप्रीम न्यूज के संपादकों” को मिठी गोली देने आया था। विडियो देखिए रिट्वीट लाईक और शेयर करके जनहितकारी पत्रकारिता को जिंदा रखने के प्रयास में अपना सहयोग दर्ज करें। 

 

नोएडा मीडिया क्लब का अध्यक्ष और ट्राईसिटी टुडे का मालिक पंकज पाराशर एक बार अपने खुद के परिवार पर नजर डालें। तब दूसरे के बारे में अपने आकाओं से मिलकर एजेंडे चलाएं। जनता स्वयं देख लें क्या ये जनहितों के लिए पत्रकारिता कर सकते हैं? ऐसे लोग पुलिस और वर्तमान सत्ता के सामने नतमस्तक होकर जनहितों को आए दिन तिलांजलि देकर अपने परिवार के अपराधियों को बचाने के लिए जनहित का सौदा करते हैं। 

 

हम सुप्रीम न्यूज वाले हैं हम जेल जाने से नही डरते। घर की हर खुंटी पर वकालत की डिग्रियां टंकी हुई हैं। कानून और कोर्ट-कचहरी सब हमें अच्छी तरह जानते हैं। आपके करतूतों से एक से दो हुए। उम्मीद है जल्द ही दो से चार हो जाएंगे।

नोएडा मीडिया क्लब के सम्मानित सदस्यों की मानहानि  के लिए अपनी खानदानी जमीन में से सौ-दो सौ गज जमीन बेच दूंगी लेकिन जमीर नही बेचूंगी  ~ मधु चमारी 

इस लेख का केवल नोएडा मीडिया क्लब के फाउंडर मेंबर और अध्यक्ष पंकज पाराशर के परिजनों और फाउंडर मेंबर और उपाध्यक्ष रिंकू यादव और उसके भाई अशोक यादव से जोड़ कर नही देखा जाए। बल्कि पूरे क्लबिया गैंग को समझने का प्रयास किया जाएं।

 

नोएडा मीडिया क्लब के अध्यक्ष और ट्राईसिटी टुडे के मालिक श्री पंकज पाराशर ने सुप्रीम न्यूज के संपादकों से जनहित में पत्रकारिता करने का वादा करते हुए समझौता किया था। लेकिन क्लबिया गैंग जिसे पुलिस-प्रशासन और अपने राजनीतिक आकाओं के साथ मिलकर एजेंडे चला कर पैसे जनरेट करने की आदत पड़ी हुई थी वह समझौते पर एक दिन भी नही टीका। यह समझौता ट्विटर पर डाली गई पोस्ट से बौखला कर किया गया था 

ट्विटर पर विडियो देखिए और रिट्वीट लाईक और शेयर करें। ये एक मिशन है जिसमें जन सहयोग बहुत जरूरी है

 

“जिनके दिमाग में  क्लबिया गैंग का पूरा सतरंज आ जाए वो अपने आप को क्लबिया गैंग से दूर कर लें। शरीफों की फजीहत करने का हमारा कोई उद्देश्य नही है। यहां बड़े-बडे प्रोपर्टी डीलर और माफियाओं का गैंग छुपा बैठा है। हम तो घासफूस की झोपड़ियों वाले फकीर है। पत्रकारिता की आड़ में कमाया हुआ हमारे पास एक फूटी कौड़ी नही है। लम्बे समय से ये संघर्ष जारी है, मुकदमें भी लिखें जाते हैं। जेल भी जाना पड़ता है। हम तैयारी के साथ हैं। पत्रकारिता के नाम पर उगाही करके घर चलाने वाले लोग अपने बेरोजगारी के समय को काटने के लिए पत्रकारिता और क्लबिया पत्रकारिता के अंतर को समझ लें। जेलों में रहकर भी क्लबिया गैंग के खेलों को बिखेर देंगे।” ~ संजय भाटी 

“इस महफिल में कमाने नही गंवाने आएं हैं। जान भी जाएंगी तो दे कर जाएंगे “  ~ संजय भाटी 

 

नोएडा मीडिया क्लब बवाला कांडों से उत्पन्न

420,406,506 IPC के इस बवाला कांड की नोएडा मीडिया क्लब की अनुशासन समिति को अब तक भी भनक नही लगी। क्योंकि इन्हीं लोगों ने प्रेस क्लब की स्थापना की थी। इनके द्वारा ही अनुशासन समिति बनाई गई।

420,406,506 के मामले में थानों से जमानत और समझौते कराने में हमारे प्रिय छोटे भाई इकबाल चौधरी भी मौजूद रहे। हमारे भाई हैं इसलिए समझौते कराते रहे। शायद जमानत पत्र और समझौते नामें पर हस्ताक्षर करने वाले लोगों मौजूदा परिस्थितियों में पत्रकारिता और नोएडा मीडिया क्लब के फाउंडर मेंबर और सम्मानित सदस्यों में से ही हैं। 

 

 

कौन बनते हैं मुखबिर और दलाल? इनकी उत्पत्ति कैसे होती?

जब कानून व्यवस्था की बात आती है तो पुलिस का नाम आता है और जब पुलिस का नाम आता है तो पुलिस के मुखबिरों और दलालों का जिक्र होना भी लाजिमी हो जाता है। कानून में भले ही मुखबिरों के नाम गोपनीय रखने का प्रावधान है। लेकिन समाज में मौजूद प्रत्येक मुखबिरों को जन सामान्य अच्छी तरह जानते और पहचानते हैं।

 

 

अब एक सवाल आप सभी के जहन में उभर रहा होगा कि जब मुखबिरों को कानून और व्यवस्था के हर स्तर पर गोपनीय रखा जाता है तो मुखबिरों को जनता कैसे जानती है। सवाल बहुत गंभीर है पर हमारे पास इसका वास्तविक और प्रामाणिक ज़बाब भी है।

दरअसल अंग्रेजों के जमाने से ही जो लोग अपराधों से जुड़े होते थे। उनके अपराधों को नजरअंदाज करने व कानूनी रूप से उन्हें अपराध की सजा से बचाने का प्रलोभन देकर उनसे समाज के क्रांतिकारियों और जन सरोकार रखने वाले लोगों के खिलाफ सूचनाएं देने और जन सरोकार रखने वाले व्यक्तियों के खिलाफ गवाही या आदि देने के लिए इस्तेमाल किए जाने का प्रचलन था। इन्हीं अपराधी किस्म के लोगों के द्वारा पुलिस-प्रशासन व सत्ताधारियों द्वारा न केवल अंग्रेजों के जमाने में बल्कि आज तक भी जन सरोकार रखने वाले लोगों के खिलाफ षड्यंत्र रचकर झूठे मुकदमें दर्ज कर, झूठी गवाही‌ दिलवा कर जन सरोकार रखने वाले लोगों की छवि बिगाड़ने का काम किया जाता है। यह सब सदियों से चली आ रही परंपराओं की तरह वर्तमान में भी न केवल प्रचलन में है बल्कि अपने आधुनिक और विकसित रूप में मौजूद हैं।

हमारे शब्द बिल्कुल सही व स्पष्ट हैं फिर भी पाठकों की सुविधा के लिए इस पर थोड़ा और आगे बढ़ाते हुए इसे स्पष्ट करते हैं। पुलिस की मुखबिरी वे लोग करते हैं जो स्वयं या जिनके परिजन अपराध में संलिप्त होते हैं। यह उनकी मजबूरी होती है। जिस परिवार के लोग हत्याओं या किसी अन्य तरीके के अपराधों में शामिल होंगे। जेलों में बंद होंगे। या जमानत पर होंगे वे हमेशा पुलिस के साथ गलबहियां करते नजर आएंगे। ये एक कटु सत्य है।

मुखबिरी की ऐवज में पुलिस द्वारा मुखबिरों के कार्य के हिसाब से मुखबिरों को पैसे से लेकर अन्य सुविधाएं भी दी जाती है। जिनमें आज के दौर में सबसे महत्वपूर्ण सुविधा दलाली करने की सुविधा पुलिस द्वारा अपने मुखबिरों को दी जाती है। दलाली की सुविधा मुखबिरों को दिए जाने के पीछे बहुत सोची समझी रणनीति होती है। जिसमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि मुखबिरों में दलाली के किसी भी मामले को खोलने की क्षमता नही होती क्योंकि मुखबिर खुद भी अपराधों में शामिल होते हैं। बहुतों के तो पूरे परिजन अपराधी होते हैं।

अब आप समझ सकते हैं कि अपराधिक पृष्ठ भूमि के परिवारों के लोग अच्छे और वफादार मुखबिर साबित होते हैं। इन्हीं वफादार मुखबिरों को पुलिस दलाली के लिए चुनती है। पुलिस के लिए ये मुखबिर दलाल बनकर बहुत बेहतर पˈफ़ॉमन्‍स्‌ देते हैं।

 

ये सुरक्षित और विश्वसनीय तो होते ही हैं। साथ ही साथ एक मुखबिर जिसे पहले से ही अपराध और अपराधियों की मंडलियों की जानकारी होती है। उसे ही दलाली का मौका देकर एक तरफ तो पुलिस वाले अपनी गैरकानूनी गतिविधियों को संचालित कर अवैध आर्थिक लाभ के कारोबार को दिन रात बढ़ाने में सफल हो जाते हैं

दूसरी ओर मुखबिरों से दलाल बनें लोग भी अपने अपराध और अपने गैंग की सुरक्षा को लेकर आश्वस्त रहते हुए अपने अवैध कारोबार और अपराध के सम्राज्य को फैलाते रहते हैं। इस तरह मुखबिरों और दलालों को अपने अपराधों पर पर्दा डालने से लेकर अपने गैंग का विस्तार कर विरोधियों को पुलिस के सहयोग से ठिकाने लगाने तक का सफर तय करना आसान हो जाता है।

 

 

 

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