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मृत घोषित पत्रकारिता का इलाज करें या जनाजा निकाल कर मुखाग्नि दे दें
वह दिन दूर नही जब पत्रकारों की आवश्यकता ही समाप्त हो जाएगी। क्यों कि जब पत्रकारिता समाप्त हो जाएगी तो पत्रकार की आवश्यकता ही क्या है ?
स्वयं पत्रकार ही पत्रकारिता को समाप्त करने के लिए जिम्मेदार है किसी जमाने में पत्रकार जनता के मुद्दों को उठाकर सरकार में सरकारी मशीनरी के सामने रखते थे सरकारी मशीनरी जैसे पुलिस और प्रशासन द्वारा आमजन के साथ किसी भी स्तर पर कोई नाइंसाफी होती थी पत्रकार उसे उजागर कर जनता के सामने लाते थे जिससे सरकार की किरकिरी होने के साथ-साथ अधिकारियों और कर्मचारियों की भी क्रिरकिरी होती थी। यदि कोई अधिकारी या कर्मचारी कुछ भी गैरकानूनी करते थे। उनके बारे में अखबारों में छपता था लेकिन वर्तमान में पत्रकारिता में ऐसा कुछ दिखाई नहीं दे रहा है जिसमें कोई पत्रकार किसी अधिकारी या कर्मचारी के विरुद्ध एक शब्द भी लिख रहा हो।
अब इसके दो मतलब है या तो कहीं कुछ गलत हो ही नहीं रहा या फिर पत्रकारों ने भी प्रशासन और पुलिस के साथ जुगलबंदी कर ली है। हम ज्यादा पुरानी बात नहीं कर रहे हैं। आठ नौ साल पहले तक भी पत्रकार सरकारी मशीनरी की खामियों को उजागर करते थे। जो वर्तमान में बिल्कुल भी नहीं हो रहा है। आखिर इसकी वजह क्या है?
पिछले 25-30 सालों में हम ने केंद्र व विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न पार्टियों के प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्रियों को बनते देखा व उनके शासन को भी बखूबी देखा है। किसी के द्वारा कितनी भी बेहतर व्यवस्था की गई हो। उस जमाने के पत्रकार उसमें भी खामियां ढूंढ लेते थे। अब वर्तमान में अधिकांश राज्यों में भाजपा की सरकार है। केंद्र/देश में भाजपा की सरकार के साथ-साथ नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं। यहां हम बस इतना ही कहना चाह रहे हैं कि जिन प्रदेशों में भाजपा की सरकार है। वहां पर अखबारों और टीवी चैनलों पर सब कुछ ठीकठाक दर्शाया जा रहा है। क्या यहीं वास्तविकता है? नही ये वास्तविकता बिल्कुल भी नही है। बल्कि वास्तविकता तो यह है भाजपा शासित राज्यों में पत्रकारिता को क्लबिया गैंगों द्वारा खत्म कर दिया गया है।
पत्रकारिता का खत्म होना बताया जाए या फिर इसे बेहतर और अच्छे शब्दों में हम यह कहे कि भाजपा शासित प्रदेशों में पत्रकारिता मर गई है तो यही उचित शब्दावली होगी। अब यहां देश की जनता जनार्दन या यूं कहें कि हम से हमारे पाठक भले ही सहमत हों लेकिन जो लोग पत्रकारिता के नाम पर गैंग चला रहे हैं वे यह सवाल जरूर उठाएंगे की हम पत्रकारिता के मर जाने की बात क्यों कह रहे हैं? हमारे पाठक तो इतना समझते ही हैं कि जब हम कह रहे हैं तो सच्चाई ही कह रहे। वैसे ये बात सभी जानते भी हैं, नेता हो या फिर किसी विभाग के अधिकारी, कर्मचारी। सभी चोरी छिपे मान भी लेते हैं कि पत्रकारिता तो मर ही गई है। इसलिए इसे सिद्ध करने की कोई आवश्यकता तो नही है। लेकिन फिर भी हम शुरू से ही अपने शब्दों के लिए जिम्मेदार रहे हैं। इसलिए हम यह बात न केवल देश की जनता के बीच साबित कर सकते हैं बल्कि हम देश के सर्वोच्च न्यायालय तक अपने शब्दों को साबित करने के लिए तैयार हैं।
वैसे भी जनता जनार्दन तो मृत घोषित पत्रकारिता के जनाजे के निकलने का इंतजार देख रही है। हम भी मृत घोषित पत्रकारिता का जल्द जनाजा निकालने की तैयारियां करके ही आए हैं। बस कंधा देने के लिए चार संपादकों और पांच-दस पत्रकारों के इकट्ठे होने के का इंतजार कर रहे हैं। मृत घोषित पत्रकारिता के जनाजे के साथ चलने को जनता जनार्दन तैयार खड़ी है।
वैसे कुछ जूझारू साथी गण कभी भी कह रहे हैं कि मरी मराई पत्रकारिता को एक बार संजीवनी बूटी देकर देख लो हो सकता है फिर से नवज बोलने लगे। कोई चमत्कार हो जाए। न जाने पत्रकारिता की सांस चलने लगें, पत्रकारिता की धड़कनें चलने लगें। कुछ पुराने हकीमों ने भी अपनी नेक सलाह नए जमाने के डाक्टरों को इलाज में लीन देखते हुए कहा है कि एक आखिरी प्रयास और कर लो। मरी तो पड़ी है पर एक बार झंझोड़ कर देख लो कहीं कोई सांस बचा होगा तो जिंदा भी हो सकती है।
कुछ हकीमों, वैद्यों तंत्रिकों का कहना है कि आजादी की लड़ाई से लेकर आठ नौ वर्ष पहले तक पत्रकारिता ने साथ दिया है। उम्मीद मत छेड़िए। पत्रकारिता के जनाजे को मरघट तक ले जाओ रोओ-पीटो, चिखों-चिल्लाओं किसी भूत, प्रेत या फिर बुरी आत्मा ने जकड़ लिया होगा तो छोड़ कर भाग जाएगी। इतनी जल्दी भी क्या है? कौशिशें करते रहो। मुखाग्नि देकर भी क्या कर लोगे? सदा याद करके रोने के अलावा कुछ भी हासिल नही होगा।
किसी ओझा को बुला कर झाड़ फूंक करवा कर भी देख लीजिए। कुछ पुराने बुजुर्गों की सलाह यह भी है। कह रहे हैं कि पत्रकारिता पर काले कारनामों वाले जिन्नात सवार हो गए हैं। जिन्नातों को उतारवा कर देख लो। तरह तरह की सलाह सामने आ रही है। हमारे लिए बड़ा सवाल यह है कि इस हालत में करना क्या है? असमंजस हो गया है कि पत्रकारिता का जनाजा निकाल कर मुखाग्नि दे दें या फिर पत्रकारिता में फैली बिमारियों का इलाज करें?