राष्ट्रीय
जनहितैषी पत्रकारिता क्या है? यह कैसे संभव है? वर्तमान परिस्थितियों में पत्रकारिता की सच्चाई क्या है?
यह लेख अभी अपूर्ण है। इसे पूरा करने के लिए आपका सहयोग मिलेगा तो और बेहतर होगा ~ संजय भाटी
जनहित में पत्रकारिता कैसे हो? यह एक अहम मुद्दा है। पत्रकारिता बहुत खर्चीला और जिम्मेदारी भरा काम है। पत्रकारिता में सबसे बड़ी समस्या पत्रकार के सामने पत्रकारिता के लिए होने वाले खर्चों की होती है। इसके अलावा पत्रकार के भी घर परिवार बीवी, बच्चे, माता-पिता या यूं कहें कि सभी सामाजिक जिम्मेदारियां होती हैं।
यदि हम गुजरे जमाने की बात करें तो पत्रकारिता करने वाले लोगों को समाज के धनाढ्य वर्ग का सहयोग मिलता था। उस समय धनाढ्य वर्ग भी देश भक्ति, जनसेवा व समाज सेवा की भावनाओं से ओतप्रोत होता था। इस लिए वे लोग जनहित के मामलों को उठाने वाले पत्रकारों को आर्थिक स्तर पर सहयोग किया करते थे। वर्तमान परिस्थितियों में यह सब बातें अब गुजरे जमाने की हो चुकी है।
अब किसी भी पत्रकार को समाज से या यह कहें कि समाज के अच्छे लोगों से किसी प्रकार का कोई आर्थिक सहयोग नहीं मिलता है। यदि मिलता भी है तो वह बहुत कम होता है। जिससे वह पत्रकारिता पर आने वाले खर्चे को वहन नही हो सकते। पत्रकारिता पर होने वाले खर्चों बारे में माहौल और कानून आज भी आज के दौर में ऐसे हैं कि जनहितैषी पत्रकारिता करना असम्भव है।
आज के दौर में कारपोरेट जगत व पूंजीपतियों द्वारा चलाए जा रहे मीडिया संस्थानों को देश व सभी प्रदेशों की सरकारें नीतिगत तरीके से सरकारी विज्ञापन देती हैं। इसके अलावा बड़ी-बड़ कंपनियां, बिल्डर या यूं कहें कि तमाम बड़े पूंजीपति मीडिया संस्थानों को विज्ञापन देकर उनके मुंह को बंद रखते हैं।
आप कहेंगे कि हम ऐसा क्यों कह रहे हैं? जी हां हम जो कह रहे हैं। वह वास्तविकता है। सच्चाई है। जिस मीडिया संस्थान के संचालन के लिए जहां से उसे आर्थिक सहयोग मिलता है। यह कभी भी संभव नही है कि वह उनके खिलाफ लिखेंगे या बोलेंगे। अब आप समझ जाएंगे कि हम कहना क्या चाहते हैं? अब मीडिया संस्थानों के संचालन के खर्च सरकारों व पूंजी पतियों के द्वारा दिए गए विज्ञापनों से चलते हैं। मीडिया संस्थानों को विज्ञापन जारी करने के बहुत से नियम और कानून हैं। यू कहें कि उन्हें एक नीतिगत तरीके से आर्थिक सपोर्ट दिया जाता है। ये पैसा सरकार और कॉरपोरेट जगत द्वारा अपने अंधे प्रचार के लिए ही दिया जाता है। आप ऐसे मीडिया संस्थानों से कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वह अपने अन्नदाताओं के विरोध में जाकर आप के पक्ष में एक शब्द भी छाप दें।
सीधे तौर पर समझ लीजिए कि जनहितैषी पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों को इस सरकारी सहायता का एक रुपया भी नही मिलता है। रुपयों की बात छोड़िए किस्सा इतना ही नही है। इससे आगे भी है। जब कोई जनहितैषी पत्रकारिता कर आपकी खबरें प्रकाशित करता है। तो वह कॉरपोरेट मीडिया संस्थानों के पत्रकारों व उनके आकाओं को नागवार गुजरती है। क्योंकि समाज में उनकी वास्तविक खुल जाती है। उनकी फर्जी साख पर बट्टा लगता है। (भविष्य में इस पर अधिक जानकारी देंगे फिलहाल अपने मुख मुद्दे पर आगे बढ़ाते हैं)
अब आपके ज्ञान और सोच पर आते हैं। आप हमेशा इन तथाकथित बड़े मीडिया संस्थानों को ही अपना सहयोग और समर्थन देते हो। हम बताते हैं कैसे? आप अपने टीवी पर इन्हीं चैनलों को न केवल देखते हो बल्कि इनके द्वारा परोसें जा रहे जहर को ज्ञान अमृत समझ कर गटक जाते हो। आपका यही हाल अखबारों के मामले में है। जिले और तहसील स्तर पर अपने अलग-अलग संस्करण छापने वाले अखबारों में आप जिला स्तरीय पेजों पर छपने को ही राष्ट्रीय स्तर का प्रसारण समझ बैठते हैं।(भविष्य में इस पर भी अधिक जानकारी देंगे फिलहाल अपने मुख मुद्दे पर आगे बढ़ाते हैं)
हां यह बात अलग है कि आपको सिर्फ वही मीडिया संस्थान दिखाई देते हैं जिनमें करोड़ों, अरबों रुपया लगाकर बड़े स्तर पर प्रसारण वह प्रकाशन कार्य किए जाते हैं। आपको कभी भी इस बात का एहसास ही नहीं होता कि जो अखबार आपको एक-दो ₹ में दे दिए जाते हैं उनकी तौल के हिसाब से रद्दी में भी आपसे ली गई कीमत से भी चार गुना ज्यादा कीमत होती है। यदि आप उनकी वास्तविक कीमत जानना चाहेंगे तो यह 10 से 12 पेज के लिए कम से कम 50 और ₹100 के बीच में आएगी। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जब आपके पास दो सौ-ढाई सौ ग्राम से लेकर 500 ग्राम तक वजनी रंगीन अखबार या पत्रिका आपके हाथों में होते हैं तो उन पर पडने वाली लागत कम से कम चार-पांच सौ रुपए तो होने ही चाहिए।
अब एक बड़ा सवाल है कि चार-पांच सौ ₹ में पडने वाले अखबार और पत्रिकाएं आपको एक दो से पांच ₹ में क्यों दे दिया जाते हैं? इसका जवाब बहुत छोटा सा है यह अलग बात है कि एक छोटा सा जवाब शायद आप में से बहुतों की समझ में नही आएगा क्योंकि आपने इसे कभी समझने का प्रयास ही नही किया। या यह भी हो सकता है कि आपके चहेते पत्रकारों, समाजसेवियों व नेताओं ने यह सब आपको समझाने की जरूरत ही नही समझी। क्योंकि उन्होंने खुद भी इस गणित को समझने पर ध्यान नही दिया।
जिन रंगीन अखबारों, पत्रिकाओं व टीवी चैनलों में आप जनहित की खबरें ढूंढने के लिए नजरें दौड़ते हो उन पर चारों तरफ आपको सरकार और बड़ी-बड़ी कंपनियों यानी कॉर्पोरेट जगत के विज्ञापन मिलते हैं
हम यह भी कह सकते हैं कि खबरों के बहाने आपको ये विज्ञापन जबरन पड़वा दिए जाते हैं क्योंकि जो खबरें आप तलाश रहे हैं उनके छापने की यदि कोई जगह इन अखबारों में होती है तो वह इन विज्ञापनों से आए पैसे की वजह से ही होती है।
आपके द्वारा एक-दो या पांच ₹ देकर अखबार खरीदने से आपकी खबरें छापने की कीमत नही निकल जाती। अब आप सोच रहे होंगे कि अखबार तो गुजरे जमाने की बात हो गई अब तो टीवी चैनल्स का युग है तो आप समझ लीजिए कि यही सिद्धांत टीवी चैनलों पर भी लागू होता है।
टीवी चैनलों में जनहित की बातें यदि कहीं दिखाई दे भी जाती हैं तो पूरे देश भर के कोई इक्का-दुक्का मुद्दे जो या तो इतने बड़े हो कि उन्हें दबाया जाना मुमकिन ही न हो या फिर वह राजनीतिक पक्ष विपक्ष के अपने आकाओं के हित में जा रही हों। आप समझ सकते हैं कि पूरे देश भर में से दिन भर के 24 घंटे में किसी एक खबर को आपको बार-बार दिखा कर आकर्षित कर दिया जाता है। इस एक मुद्दे को दिखाकर यह दावा किया जाता है कि अमुक टीवी चैनल देश की जनता की आवाज उठा रहा है।
देश में 130 करोड़ से भी ज्यादा आबादी है। अब आप समझने की कोशिश करें हमारे देश की जनसंख्या 130 करोड़ से भी ज्यादा है। 130 करोड़ लोगों में बहुतों के साथ कोई न कोई घटना या फिर समस्या होती रहती हैं।
अब क्या संभव है कि सभी घटनाएं किसी भी टीवी चैनल पर दिखाई जा सके। क्या संभव है कि कोई भी टीवी चैनल फ्री में 24 घंटे आपकी समस्याओं को दिखाए। आज के दौर में जब भी दिखाई जाए तो क्या 1 जिले की वास्तविकता आपको रखी जा सकती है नहीं। पूरे देश की जन समस्याएं तो शायद ही देश में चलने वाले टीवी चैनलों पर दिखाया जाना संभव ही नहीं है हां लेकिन इन टीवी चैनलों द्वारा एक काम अवश्य कर दिया जाता है इन बड़े अखबारों द्वारा एक काम अवश्य कर दिया जाता है। अभी समझ लीजिए उसे समझना बहुत जरूरी है इन टीवी चैनलों और अखबारों के द्वारा दिनभर में अपने राजनीतिक आकाओं के लाभ के लिए उठाए जाने वाले 1-2 मुद्दे जिससे आपको ऐसा महसूस होता है कि यह समाज और जनता के हित में उठाए जा रहे हैं।
कॉरपोरेट जगत के आपके पसंदीदा बड़े समाचार पत्रों, पत्रिकाओं और टीवी चैनलों के संचालन में होने वाले खर्चों के अलावा आपकी खबरें एकत्र करने पर भी खर्चा होता है। आजकल बड़े शहरों में पत्रकार खबरें एकत्र करने के लिए बड़ी-बड़ी गाड़ियों से जाते हैं। आम तौर पर एक सभी बड़े समाचार पत्रों व पत्रिकाओं तक के पत्रकार और कैमरा मैन अलग-अलग होते हैं। टीवी चैनलों के पत्रकारों का ताम-झाम कुछ ज्यादा ही होता है। गाड़ियों के ड्राइवर के अलावा एक-दो चेले-चपाटें भी साथ होते हैं। कुछेक को तो इनके आकाओं द्वारा खबरें एकत्र करने में आने वाले खर्चे के अलावा मानदेय भी दिया जाता है।
आपको जानकर हैरानी होगी कि इनमें से अधिकांश पत्रकार दहाड़ी मजदूर की तरह रखे जाते हैं। मतलब एकत्र की गई खबर प्रकाशित या प्रसारित हुई तो खबरों की गिनती करके महीने दो महीने में बहुत ही कम रेट के हिसाब से पैसा दे दिया जाता है। यदि हम दहाड़ी पर ख़बरें एकत्र करने वाले पत्रकारों की दहाड़ी की जानकारी दूंगा तो आप हैरत में पड़ जाएंगे। इन पत्रकारों की मजदूरी बेलदारों से भी कम होती है। इस तरह की पत्रकारिता से जुड़े लोगों की मंजूरी/मानदेय और काम मिलने की संभावना होमगार्डों, पीआरडी जवानों या ये भी कह दूं कि कभी-कभी तो मनरेगा/नरेगा योजना से भी ज्यादा बदतर होती है।
इस सब में एक दूसरा पहलू भी है। चलो हम बिना पहेलियां बुझाएं आपको बता देते हैं। आपके क्षेत्र में जो छोटे अखबार जिला स्तर पर चल रहे होते हैं। बड़े समाचार पत्र में टीवी चैनल्स कभी कबार इक्का-दुक्का खबरें छाप कर जिला स्तर पर चल रहे छोटे अखबारों के वजूद को खत्म करने की योजना के तहत कभी कभार आप की खबरों को प्रकाशित करते रहते हैं। जिससे आपके दिमाग में हमेशा बड़े समाचार पत्र व टीवी चैनल्स और उनके पत्रकार ही बसे रहते हैं।
यहीं से आपके साथ एक ऐसा गोरखधंधा शुरू हो जाता है। यह सब आपके खुद के दिमाग की कमजोरी की वजह से होता है। क्योंकि आप बड़े मीडिया संस्थानों के समाचार पत्र-पत्रिकाओं व टीवी चैनल्स की नीतियों को नहीं समझ पाते हैं। बल्कि आप उन्हीं में उलझे रहते हैं। इसी उलझन में आप कभी भी जिला स्तरीय या यूं कहें की छोटे संघर्ष कर रहे मीडिया संस्थानों को सपोर्ट ही नही करते।
यहां तक कि आप अपनी खबरें प्रकाशित कराने के लिए उन पत्रकारों से संपर्क करते हैं आप की खबर छपा छपे आपका ध्यान केवल बड़े मीडिया संस्थानों पर ही रहता है जबकि वास्तविकता तो यह है कि अनेकों खबरें बड़े मीडिया संस्थानों में तब जाकर छपती हैं जब उन्हें क्षेत्रीय अखबार या क्षेत्रीय मीडिया संस्थान कई बार तो हफ्तों और महीनों तक छपते रहते हैं यानी आप के शुरुआती मित्र और आप के शुरुआती सहायक यही छोटे पत्रकार होते हैं छोटे अखबारों के मालिक होते हैं छोटे लोग होते हैं।
यहां हम आपको एक और उदाहरण देना चाहते हैं। आप सड़क पर जा रहे हैं। दिन के समय आपकी मोटरसाइकिल की लाइट जली हुई है या आप के साथ बैठी महिला या बच्चों के कपड़े नीचे लटक रहे हैं या आपकी गाड़ी में कोई और दूसरी कमी हो रही है तो आप देखेंगे कि कभी भी आपको उसके लिए चिल्लाकर या इशारा करके सड़क पर चल रहा कोई साइकिल सवार या गरीब जो पटरी पर पैदल चल रहा है वही आपका ध्यान आकर्षित कराने का प्रयास करेगा।
मेरा अपना भी अनुभव है मुझे सड़क पर कभी किसी बंद शीशे वाली एसी गाड़ी में आराम से बैठे किसी भी व्यक्ति ने आज तक इस तरह की घटनाओं की जानकारी नही दी। चाहे भले ही मैं उनके बहुत करीब से या बराबर से गुजरा मोटरसाइकिल की लाइट जले होने या पंचर होने या स्टेंड के खुलें होने, साथ बठी किसी महिला और बच्चे के कपड़े आदि के लटके होने या इसी तरह की दूसरी कोई जानकारी आज तक किसी शीशे बंद एसी गाड़ी वाले ने ना तो मुझे बताइए और ना ही सड़क पर चलते वक्त मैंने उन्हें किसी ओर के मामले में भी उन्हें किसी को कुछ आपात स्थिति की जानकारी देते हुए दिखा।
मैं यह कहना चाह रहा हूं कि बड़े लोगों की अपनी एक दुनिया है। उन्हें आपकी परवाह ही नहीं है कि आप के साथ कोई दुर्घटना हो जाएगी या कहीं कुछ गलत हो रहा है। यदि इन बातों की चिंता है, तो सिर्फ मध्यम वर्ग और गरीब तबके को ही है।
अब हम आपसे यह कहना चाहते हैं कि आप पसंदीदा बड़े समाचार पत्रों व पत्रिकाओं और टीवी चैनलों के संचालन में लगे उद्योगपतियों को आपकी समस्याओं से कोई सरोकार नही है। उनका उद्देश्य तो केवल अपने मुनाफे तक सीमित है। यह मुनाफा उनके द्वारा चलाए जा रहे मीडिया संस्थानों से होने वाले मुनाफे तक सीमित नही है। इसका बहुत व्यापक दायरा है। फिलहाल इतना समझ लीजिए कि पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए केंद्र और राज्यों में मनमाफिक सरकार के होने से लेकर बड़े-बड़े सरकारी पदों पर मनमाफिक लोगों का होना जरूरी है।
अब आपको यह भी समझना होगा कि इस सब में मीडिया संस्थानों की भूमिका क्या है? दूसरे इस में पत्रकारों की क्या भूमिका है? चलो एक सवाल का जबाब दे देते हैं। बेरोजगारी से जुझते देश में एक बेरोजगार व्यक्ति से आप क्या उम्मीद कर सकते हो? यही की वह कुछ भी करके अपनी व अपने परिवार की जरूरतों को पूरा कर ले। इससे ज्यादा उम्मीदें आपको करनी है तो कर सकते हैं।
हमारा मतलब साफ है कि कमाई का जरिया तलाशते हुए खबरें एकत्र करना ही पत्रकार का धर्म और कर्म दोनों हैं। जिसमें अधिकांश पत्रकार बहुत माहिर होते हैं। जो जितने माहिर होते हैं वे अपने कर्मों से उतने ही संतुष्ट भी होते हैं। क्योंकि इनके संबंध जरूरत के पुलिस-प्रशासन के अधिकारियों व कर्मचारियों से लेकर सांसद, विधायक तो क्या मंत्री-संतरियों तक से होती है। इनके कानूनी और गैर कानूनी कामों को तो छोड़िए, इनकी गैरकानूनी गतिविधियों को भी कोई नही रोकता। इनके सहयोग और संरक्षण में मोटी आमदनी के गैरकानूनी धंधे खुब फलते फूलते हैं।
अब हम आपको छोटे और मझले समाचार पत्रों व पत्रिकाओं के मालिकों और पत्रकारों के बारे में विस्तार से जानकारी देंगे। पहले इनके मालिक के उद्देश्य और कार्यशैली पर चर्चा करते हैं। अधिकतर इनके मालिक ही इनके संपादक भी होते हैं। छोटे व मझले समाचार पत्रों व पत्रिकाओं के संचालक अधिकांश बड़े मीडिया संस्थानों में कार्यरत पत्रकार या फिर बड़े मीडिया संस्थानों से बगावत करके आए पत्रकार होते हैं। इनकी बगावत के अलग-अलग कारण होते हैं। इनमें अधिकांश वे पत्रकार होते हैं जिन्हें किसी के मातहत रह कर काम करने की आदत नही होती। ये खुले सांड की तरह उछल-कूद करते हैं जिसकी अनुमति कॉरपोरेट मीडिया संस्थानों द्वारा नही दी जाती।
कुछेक छोटे व मझले समाचार पत्रों व पत्रिकाओं के संचालन बड़े मीडिया संस्थानों के कमाई के जरिए को देखकर अधिक कमाई के उद्देश्य से समाचार पत्रों व पत्रिकाओं का संचालन करते हैं। इनमें बहुत से अलग-अलग विचारधाराओं के पक्षधर होते हैं। एक दूसरे के विरोधी विचारधारा के कारण भी समाचार पत्रों व पत्रिकाओं का संचालन व संपादन किया जाता है। ये कॉरपोरेट जगत के समाचार पत्रों की तरह ही चलाए जाते हैं। इनके संचालकों की आथिर्क स्थिति बहुत अच्छी या फिर मध्यम दर्जे की होती है। ये वर्तमान सत्ता से कदम ताल मिला कर चलते रहते हैं। सरकारी विज्ञापन के अलावा कोई दूसरा काम इन्हें नही होता। इनमें से अधिकांश को जनता से कोई सरोकार नही होता। देश के हर जिले में ऐसे समाचार पत्रों व पत्रिकाओं की संख्या बहुत अधिक हैं।
वास्तव में हर तरह की समस्याओं से जूझते भी गरीब और मध्यम वर्ग के लोग ही हैं। आप समझ सकते हैं कि सारी सरकारी मशीनरी और देश- दुनिया की कानून व्यवस्था अमीरों की सेवा के लिए ही है या यूं कहें कि देश भर की सभी सुविधाएं जो हमारे द्वारा दिए गए टैक्स से चलती हैं वह सब अमीरों के दरवाजे पर ही उनकी सेवा के लिए खड़ी रहती हैं। खैर मैं विषय को नही बदलना चाहता फिर दोबारा से पत्रकार और पत्रकारिता ही लाना चाहता हूं।
जनहित में पत्रकारिता के विषय पर हम लगातार पिछले 25-30 साल से विस्तृत रूप से हजारों पत्रकार साथियों से विचार विमर्श करते चले आ रहे हैं। अधिकांश पत्रकारों ने तो पत्रकारिता के वर्तमान धर्रें में ही अपने लाभ के रास्ते तलाशते हुए जनता को हासिये पर छोड़ दिया है। लेकिन कुछ पत्रकारों से हमारी लगातर बातें होती हैं जो आज तक भी इस बात पर सहमत हैं कि पत्रकारिता को जनहितैषी पत्रकारिता की और ले जाने के सकारात्मक नतीजों पर पहुंचा कर ही रहेंगे।
आगे जारी……..
संजय भाटी संपादक सुप्रीम न्यूज