विचारक
जय पत्रकारिता, जय पत्रकार, हर भारतीय नागरिक को है अधिकार
पेशेवर पत्रकार धंधे पर चोट के चलते उठते हैं असली-नकली पत्रकारिता का सवाल ~ संजय भाटी
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जब भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर किसी आम आदमी या सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर समाचारों की वैबसाइट, यूट्यूब चैनल आदि बना कर पत्रकारिता करने वाले लोगों द्वारा भारत सरकार द्वारा स्वीकृत या रजिस्टर्ड मीडिया संस्थानों व उनके पत्रकारों को कठघरे में खड़ा करते हुए कोई धमाके दार मामला उजागर कर दिया जाता है तो पत्रकारों के वैध और अवैध होने की बहस छिड़ जाती है। वैसे पत्रकारिता किसी के बाप की बपौती या धरोहर नही है। ये एक हुनर है। एक योग्यता है। एक सोच है। एक संवैधानिक अधिकार है। प्रत्येक भारतीय नागरिक उपलब्ध साधनों के माध्यम से अपने विचार व आस-पास की घटनाओं व गैरकानूनी गतिविधियों को जनहित में प्रसारित व प्रचलित कर सकता है। इस बहस को कानूनी आधार पर बहुत लम्बा खींचा जा सकता है। लेकिन इतना ही काफी है। इसका एक दूसरा पहलू भी है। जो पेशेवर पत्रकारों के धंधे पर चोट व उनके वर्चस्व पर चोट का है। उस पर कुछ प्रकाश डालते है।
पत्रकारिता और पत्रकारों को लेकर सोशल मीडिया पर अक्सर चर्चाएं होती रहती हैं। इन चर्चाओं का मुख्य मुद्दा असली पत्रकार बनाम नकली पत्रकार होता है। दरअसल जो पत्रकार सरकार व विभिन्न राजनीतिक दलों से प्रेरित होते हैं । वह हमेशा ही सोशल मीडिया पर जो लोग स्वच्छ और निष्पक्ष पत्रकारिता कर रहे हैं उन पर सवाल उठाते रहते हैं। क्योंकि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर जो पत्रकारिता हो रही है । वह आम जन की भावनाओं और समस्याओं को लेकर की जा रही है। सोशल मीडिया पर अधिकांश खबरें जनसमस्याओं को लेकर उठाई जाती हैं। इन समस्याओं को उठाने वाले अधिकांश लोग व्यवसायिक रूप से पत्रकार नहीं होते हैं। लेकिन जन समस्याओं को उठाने वाले ये आम भारतीय नागरिक पत्रकार हैं या नहीं है। इस बात को हमेशा उन पत्रकारों द्वारा उठाया जाता है। जो पुलिस प्रशासन वह राजनीतिक दलों के नेताओं, यहां तक कि अपने-अपने क्षेत्र के अवैध कारोबारियों व अपराधी किस्म के लोगों से जुड़े होते हैं। जो हमेशा अपने इन संबंधों को देखकर ही अपने इन संपर्कियों के पक्ष में खबरों का प्रकाशन करते हैं। क्योंकि पेशेवर पत्रकारों के घरों के खर्च इन्हीं अपराधी व भ्रष्टाचारी प्रवृत्ति के अधिकारियों कर्मचारियों व अपने क्षेत्रों में पनप रहे छोटे-मोटे अपराधियों के साथ मिलकर चलता है। अब ऐसे में ट्विटर पर फेसबुक पर या यूट्यूब पर या अन्य किसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर कोई भी व्यक्ति इस तरह की खबरों का प्रकाशन करता है जिससे इन पेशेवर पत्रकारों की पोल खुल जाती है। इनसे संबंधित अपराधियों, पुलिस अधिकारियों, राजनीतिक व्यक्तियों, माफियाओं की पोल खुल जाती है, तो कहीं ना कहीं इस तरह के पेशेवर पत्रकारों को दुख पहुंचता है।
आप कभी भी देख लेना जब भी सोशल मीडिया पर पुलिस के खिलाफ कोई वीडियो आदि वायरल की जाती है। तो बहुत से पत्रकारों के पेट में दर्द होने लगता है या जब कभी किसी ऐसे अपराधी की पोल खोली जाती है जो आर्थिक अपराध जैसे सुल्फा-गांजा की बिक्री, सट्टा या खाई बाड़ी, अवैध शराब की बिक्री या यहां तक की कॉल गर्ल रैकेट संचालक आदि की किसी आमजन या सोशल मीडिया पत्रकार के द्वारा पोल खोली जाती है तो अपने आप को वरिष्ठ पत्रकार कहने वाले पुराने व बड़े मीडिया संस्थानों से जुड़े पत्रकार तिलमिला उठते हैं। इसका सीधा कारण यही है कि इन पत्रकारों को अपने क्षेत्र में चलने वाले सभी अवैध धंधों व पुलिस की गैर कानूनी गतिविधियों की जानकारी होती है लेकिन यह अपनी अवैध आमदनी के चलते कभी भी इस तरह की गतिविधियों के खुलासे नहीं करते। बल्कि जब कोई भी व्यक्ति सोशल मीडिया पर इस तरह के खुलासे करेगा तो सबसे ज्यादा दुख बड़े मीडिया संस्थानों से जुड़े वरिष्ठ पत्रकारों को ही होता है। इस तरह के पत्रकारों का यह दुख पोल खोलने वाले के खिलाफ ये लोग कॉमेंट आदि करके उगलना शुरू कर देते हैं।
भारतीय संविधान के तहत प्रत्येक भारतीय नागरिक को अपनी बात रखने का अधिकार प्राप्त है और हमारे देश में पत्रकारिता भी इसी अधिकार के तहत चलती है। अब यहां यह सवाल कहां से आ गया कि अमुक व्यक्ति पत्रकार है या नहीं है। भारतीय नागरिक को वही अधिकार हैं जो एक पेशेवर पत्रकार को हैं। बस सवाल यह है कि जो लोग रजिस्टर्ड मीडिया संस्थानों में स्पेशल पत्रकारिता कर रहे हैं। उनके पास अपने मीडिया संस्थान हैं जिनके द्वारा वे समाचारों को जनता तक पहुंचाते हैं। मतलब साफ है कि वे किसी मीडिया संस्थान से जुड़ कर व्यवसाय के रूप में पत्रकारिता कर रहे हैं। जिनके अपने गुजारे पत्रकारिता से कमाई करके चलते हैं । उनके वर्चस्व और कमाई पर सोशल मीडिया पर एक्टिव लोगों के द्वारा चोट पहुंचा दी जाती है। जिससे इन्हें बहुत बड़ा धक्का पहुंचता है। क्योंकि इनका बरसों से जमा हुआ नेटवर्क किसी एक व्यक्ति की वजह से ध्वस्त हो जाता है।
अब आप समझ सकते हैं कि लड़ाई पत्रकार होने न होने की तो है ही नही असल लड़ाई धंधे और ठेके मतलब वर्चस्व पर आघात पहुंचने की है। भ्रष्टाचार में लिप्त पत्रकारों के पेट पर लात लगने की है। वर्चस्व के टूटने की है। सभी भारतीय नागरिक भारत में अपनी बात रखने व उपलब्ध साधनों से प्रचार-प्रसार करने का अधिकार रखते हैं। – संजय भाटी